अब वीरमदेव की कहानी को राजस्थान ही नहीं, देश का हर बच्चा जान सकेगा। क्योंकि, वीरमदेव की 18 फीट ऊंची और 3 टन वजनी प्रतिमा टुंकाली पहाड़ी पर स्थापित की जाएगाी। प्रतिमा को इतनी ऊंचाई पर ले जाना आसान नहीं है, ऐसे में सेना के हेलिकॉप्टर के जरिए इसे पहाड़ी पर पहुंचाया जाएगा।
सबसे पहले वीरमदेव की प्रतिमा के बारे में जानिए
वीरमदेव फाउंडेशन ट्रस्ट की ओर से इस प्रतिमा का निर्माण 2021 में शुरू कराया गया था। हरिद्वार में 85 साल के फकीर चरण परिड़ा ने कान्हड़देव के पुत्र वीर की प्रतिमा का निर्माण किया है। अष्टधातु से बनी इस प्रतिका को तीन हिस्सों में बनाया गया है। एक हिस्सा घोड़े का शरीर, दूसरा मुंह और तीसरा वीरमदेव का धड़ है। तीन हजार किलो (तीन टन) की इस प्रतिमा को बनाने में दो साल का समय लगा है। इस मूति की ऊंचाई 18 फीट है। घोड़े पर बैठे वीर वीरमदेव की प्रतिमा के हाथ में अष्टधातु से बनी 20 किलो वजन की पांच फीट लंबी तलवार है। इस प्रतिमा को टुंकाली की पहाड़ी पर 10 फीट ऊंचे फाउंडेशन पर लगाया जाएगा। इसके बाद यह 10 किलोमीटर दूर से भी दिखाई देखी।
क्या है वीर वीरमदेव के घोड़े की खासियत?वीरमदेव फाउंडेशन ट्रस्ट की ओर से इस प्रतिमा का निर्माण 2021 में शुरू कराया गया था। हरिद्वार में 85 साल के फकीर चरण परिड़ा ने कान्हड़देव के पुत्र वीर की प्रतिमा का निर्माण किया है। अष्टधातु से बनी इस प्रतिका को तीन हिस्सों में बनाया गया है। एक हिस्सा घोड़े का शरीर, दूसरा मुंह और तीसरा वीरमदेव का धड़ है। तीन हजार किलो (तीन टन) की इस प्रतिमा को बनाने में दो साल का समय लगा है। इस मूति की ऊंचाई 18 फीट है। घोड़े पर बैठे वीर वीरमदेव की प्रतिमा के हाथ में अष्टधातु से बनी 20 किलो वजन की पांच फीट लंबी तलवार है। इस प्रतिमा को टुंकाली की पहाड़ी पर 10 फीट ऊंचे फाउंडेशन पर लगाया जाएगा। इसके बाद यह 10 किलोमीटर दूर से भी दिखाई देखी।
वीर वीरमदेव मालाणी नस्ल के घोड़े की सवारी करते थे। इस नस्ल का घोड़ा साहसी होने के साथ-साथ स्वामी भक्त और अनोखी शारीरिक विशेषताओं वाला होता है। ये दौड़ते समय अपने पिछले पैरों से आगे वाले पैरों को टक्कर मारते हैं। इससे ये बहुत तेज दौड़ते हैं, या कहें कि दौड़ में सबसे आगे रहते हैं। मालाणी नस्ल के घोड़े के कान ऊंचे होते हैं और ये अपने कानों के सिरों से सिक्का तक पकड़ लेते हैं।
स्थापना की तारीख तय होने का इंतजार
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार वीर वीरमदेव की इस प्रतिमा को पहाड़ी पर स्थापित करने के लिए लंबे समय से अधिकारियों से बात चल रही थी। अब इसके लिए परमिशन मिल गई है। सेना के जवान अपने हेलिकॉप्टर से इस प्रतिमा को पहाड़ी तक पहुंचाएंगे, जिसके बाद इसे स्थापित किया जाएगा। सेना के अधिकारी इसके लिए मौके का निरीक्षण भी कर चुके हैं, बस स्थापना की तारीख तय होने का इंतजार है।
अब जानिए वीर वीरमदेव की कहानी, जिससे मुस्लिम शहजादी को हुआ प्यार
वीरमदेव जालोर के महराजा कान्हड़देव के पुत्र थे। 22 साल की उम्र में ही वे युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे। अलाउद्दीन खिलजी की सेना सोमनाथ मंदिर लूटने के लिए तो जालोर से गुजरने के लिए रास्ता मांगा, लेकिन तत्कालीन महाराजा ने रास्ता देने से इनकार कर दिया। इस इनकार से अलाउद्दीन खिलजी नाराज हो गया। वापस आते समय उसकी सेना जालोर के रास्ते लौटी तो दोनों सेना के बीच युद्ध हो गया। जालोर की सेना का नेतृत्व महाराजा कान्हड़देव के बेटे वीरमदेव कर रहे थे। इस युद्ध में खिलजी की सेना को पराजय मिली और वे मैदान छोड़कर दिल्ली भाग गए।
वीरमदेव ने खिलजी की सेना को खदेड़ा
युद्ध में जीत हासिल करने के बाद वीरमदेव की वीरता के किस्से दिल्ली तक पहुंचे। वीरमदेव की वीरता की कहानी अलाउद्दीन खिलजी की बेटी शहजादी फिरोजा ने सुनी तो वह वीरमदेव पर दिल हार बैठी। उसने वीरमदेव से निकाह करने का मन बना लिया। फिरोजा ने अपने पिता अलाउद्दीन खिलजी के सामने वीरमदेव के साथ निकाह करने का प्रस्ताव, लेकिन वह नहीं माना। लेकिन, फिरोजा अपनी बात पर अड़ गई। उसने खिलजी से साफ कह दिया- वर वरूं वीरमदेव न तो रहूं अकन कुंवारी (निकाह करूंगी तो सिर्फ वीरमदेव के साथ नहीं तो हमेश कुंवारी रहूंगी)।
फिरोजा से विवाह का प्रस्ताव ठुकराया
इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी ने शहजादी फिरोजा का विवाह वीरमदेव से कराने के लिए महराजा कान्हड़देव को भेजा। लेकिन, कान्हड़देव और वीरमदेव ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए उन्होंने कहा- मामो लाजे भाटियां, कुल लाजे चौहान, जे मैं परणु तुरकणी, ते पश्चिम उगे भाग यानी (अगर मैं तुरकणी से विवाह करूंगा तो भाटी और चौहान कुल लज्जित हो जाएग, ऐसा तभी हो सकता है जब सूरज पश्चिम से उगे )। विवाह का प्रस्ताव ठुकराए जाने के बाद अलाउद्दीन खिलजी भड़क गया और उसने युद्ध का बिगुल फूंकवा दिया।
यमुना नहीं में कूद शहजादी फिरोजा
युद्ध के एलान के बाद करीब एक साल तक खिलजी की सेना जालोर में रही। युद्ध हुआ और जालोर सेना के हारने के बाद हजारों राजपूतानियों ने किले में जोहर कर लिया। 22 साल की उम्र में वीरमदेव को भी वीरगति प्राप्त हुई। खिलजी की सेना वीरमदेव की वीर वीरमदेव का मस्तक दिल्ली ले गई और शहजादी फिरोजा के सामने पेश किया। यह देखकर फिरोजा का कलेजा फट गया, उसने मस्तक का अंतिम संस्कार और फिर यमुना नदी में कूदकर जान दे दी। इसी के साथ इस प्रेम कहानी का दुखद अंत हो गया।
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